बेंठ बिना,टंगीया के–
बेंठ बिना,टंगीया के–
बिहनिया बेरा देखेंव त,
रुख ह बने अड़े रिहिस|
संझा के होवत ले कटाके,
भुइंया म वो पडे़ रिहिस||
तोर हाल कइसे होगे जी,
मेंहा पूछ परेंव रुख ल|
बम फाड़के रोवत वोहा,
बताइस अपन दुख ल||
वो बैरी लोहा के टंगीया ह,
मोला धड़ा-धड़ काट दिस|
फेर मोरे लकड़ी बेंठ बनके,
देख आज मोला बाट दिस||
इहि ढंग के घटना ह जी,
आज देश,समाज म घटत हे|
अरे दूसर ल कोन कहे,
अपनेच सेती,अपने कटत हे||
सोचव न बेंठ बिना टंगीया के,
कतेक के,का औकात हे|
समझइया बर इशारा काफी,
ये लाख टका के बात हे||
रचनाकार:-श्रवण कुमार साहू, “प्रखर”
शिक्षक/साहित्यकार, राजिम, गरियाबंद