भगवान जगन्नाथ के नेत्र उत्सव पर खास खबर।
देवभोग :- आपने आज तक देवभोग के जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ सुनी होगी। आज उनके नेत्रो उत्सव पर बेहेरा परिवार का प्रभु के प्रति सेवा भाव और इस परिवार को प्रभु की सेवा करने की मिली जिम्मेदारियों की असल कहानी से अवगत करवाने जा रहे है। जगन्नाथ सेवा समिति के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा के मुताबिक देवभोग के जगन्नाथ मंदिर में रखा गया मूर्ति एकल मूर्ति है, इसे मिच्छ मुंड नामक ब्राह्मण पूरी से लेकर देवभोग पहुँचे थे। इस दौरान कुछ दिनों बाद मिच्छ मुंड ने अपनी पुत्री का विवाह भगवानो बेहेरा से किया, विवाह के बाद मिच्छ मुंड ने दहेज में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति अपनी बेटी और दामाद को दे दिया, दहेज में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति मिलने के बाद भगवानो ने झाराबाहाल में एक कुटिया बनाकर भगवान की पूजा अर्चना शुरू किया, वे प्रभु के लिए मंदिर बनाना चाहते थे लेकिन अकेले मंदिर बना पाना संभव नहीं था। ऐसे में उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति लेकर पुरे 84 गॉवो का भ्रमण करना शुरू किया। इस दौरान सभी गॉव के लोगों से जनसहयोग देकर मंदिर निर्माण में सहभागिता देने की अपील की। भगवानो का यह मुहीम रंग लाया, तत्कालिक जमींदार ने साढ़े 36 डिसमिल जमीन मंदिर निर्माण के लिए दान करने की घोषणा भी कर दी। इस दौरान भगवानो बेहेरा स्वर्ग सिधार गए, इसके बाद रामचंद्र बेहेरा ने कमान संभाली, उन्होंने भी आधा निर्माण तक काम किया, उनकी मृत्यु के पश्चात बलभद्र बेहेरा ने कमान संभालकर मंदिर को वर्ष 1901 में पूरा करवाया, वहीं 1901 से लगातार भगवान जगन्नाथ का पूजा अर्चना जारी है, हर 12 साल में होता है भगवान का रूपांतरण-देवभोग के जगन्नाथ मंदिर सेवा समिति के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा ने बताया कि देवभोग की भगवान जगन्नाथ की मूर्ति दधि ब्राह्मण के रूप में एकल मूर्ति के रूप में जाना जाता है, इसमें शक्ति स्थापित है। जैसे पूरी में कलेवर होता है, तो मूर्ति को जला दिया जाता है। इसमें शक्ति स्थापित होने के कारण हर 12 साल में कलेवर तो किया जाता है, लेकिन इस दौरान इन्हें जलाया नहीं जाता बल्कि इनका रूपांतरण किया जाता है। रूपांतरण के दौरान मूंग को जलाके, घी और मूंग का पेस्ट बनाके, नया कपड़ा में धूप, मूंग और घी का पेस्ट लगाके प्रभु के पुरे शरीर में इस लेप को लगाया जाता है, और कपड़े को लपेटा जाता है, फिर चित्रण किया जाता है। पूरी के जगन्नाथ मंदिर से है देवभोग के मंदिर का है विशेष नाता-देवभोग के जगन्नाथ मंदिर का पूरी के जगन्नाथ मंदिर से विशेष नाता है, यही कारण है कि आज भी देवभोग के मंदिर से पूरी के लिए भोग भेजा जाता है, भोग भेजे जाने का यह परम्परा 100 साल पुराना है, यहां बताना लाजमी होगा कि देवभोग में 84 गॉव के लोग भगवान जगन्नाथ जी को आज भी लगान देते है, यह परम्परा 169 साल से चली आ रही है, देवभोग के जगन्नाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा के मुताबिक सन 1854 में क्षेत्र के पुरे 84 गॉव के गोहटिया ने संकल्प लिया था कि जगन्नाथ मंदिर के रख-रखाव और भोग के लिए चावल, धान और मूंग लगान के रूप में देंगे, आज भी सभी गोहटिया उस संकल्प का पालन करके भगवान जगन्नाथ को लगान हर साल देते है, देवेंद्र के मुताबिक यहां से वसूले गए लगान की कुछ मात्रा को पूरी भेजा जाता है, इसके लिए सात दिन पहले पूरी के पंडा द्वारा भेजा गया पूरी मंदिर का एक व्यक्ति देवभोग पहुँचता है। वह व्यक्ति मिले हुए लगान का एक चौथाई हिस्सा लेकर निकलता है, यहां से पहुंचाया गया भोग भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया जाता है। वर्षों से चली आ रही यह परम्परा आज भी कायम है, पहले देवभोग नगर का प्राचीन नाम कुसुम भोग हुआ करता था। पूरी में भगवान को भोग लगने के कारण इसका नाम लगभग 123 साल पहले बदलकर देवभोग रखा गया। 1901 में बनकर पूरा हुआ मंदिर-मंदिर समिति के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा के मुताबिक देवभोग के जगन्नाथ मंदिर का इतिहास 150 साल से भी ज्यादा पुराना है, इलाके के 84 गॉव के जनसहयोग से इस मंदिर को बनाने में 47 वर्ष लग गए, समिति अध्यक्ष के मुताबिक मुहूर्त देखकर निर्माणाधीन मंदिर का कार्य शुरू होता था, और मुहूर्त खत्म होने के मंदिर का कार्य बंद कर दिया जाता था। यहां बताना लाजमी होगा कि वास्तुकला और अनोखी पद्धति से निर्मित यह मंदिर 84 गॉव के ग्रामीणों के जनसहयोग से तैयार हुआ है, इसमें सीमेंट और छड़ भी नहीं लगाया गया है, जबकि सीमेंट और छड़ की जगह इसे बनाने में बेल, चिवड़ा, बबूल और देशी सामाग्रियों का इस्तेमाल करके ईमारत को जोड़ा गया है, शंख की ध्वनि होकर दीवारों से टकराने पर मनोकामना होती है पूरी-देवभोग के जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक और मान्यता है कि यहां यदि कोई श्रद्धालु पूजा अर्चना के लिए मंदिर पहुँचता है, इस दौरान यदि पंडित के द्वारा शंख फूका जाता है, और यदि शंख की ध्वनि मंदिर के चारों दीवारों पर तेजी से प्रसारित होती है तो वह ध्वनि दीवारों से टकराकर फिर से वापस लौटती है, तो माना जाता है कि जो श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेकर मंदिर पहुंचता है, उसकी मनोकामना पूरी होने के संकेत भगवान देते है।