विषय-रघुकुल सी नहीं यहां रीति-रिवाज।

कविता
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नारी के वजूद पर उठता हैं कई सवाल

अंनत वेदनाओ की नहीं रखते खयाल

होता आया है हर युग में ही अत्याचार

सहनशीलता संयम उनकी बेमिसाल।

साधु वेश में घूमते कई रावण यहां
हर दिन होता हरण बेगुनाह सीता का
पूर्ण सुरक्षा का बना नहीं अब तक ढाल
हर पुरुष को कहां हैं मर्यादा का ध्यान।

काश !हर घर में हो कौशल्या सी माता
पढ़ा पाएं जों नारी सम्मान का पाठ
रघुकुल सी नहीं हैं यहां रीति-रिवाज़
विश्व पटल से उठती नहीं क्यूं आवाज़।

नारी के प्रति सभी अब बदलें नजरिया
वो नहीं हैं सिर्फ मोम की इक गुड़िया
सती सावित्री और बन जाती अहिल्या
काली दुर्गा व चंडी बन लेती अवतार।

दुष्ट- पापी राक्षसों का करती सर्वनाश
घर की दहलीज जब भी करती हैं पार
हर क्षेत्र में कुशलता से कर लेती काम
दीन-दुखी प्रताड़ित और नहीं वो लाचार।

आत्मनिर्भर बन बढ़ा रही देश का मान
सूनी राहों में आज भी हवस की शिकार
क्यूं खत्म नहीं होता दहशत का माहौल
हवस की दरिंदगी से होती उसकी हार।

गैरो की बातों में आकर लगाएं न लांक्षण
चारित्रिक संदेह की जलें न मन में आग
नर होकर नारायण के करना गुण धारण
अपनी जानकी का परित्याग न करना।।
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प्रेषक,
कवयित्री
सुश्री सरोज कंसारी
नवापारा राजिम
जिला-रायपुर (छ. ग.)